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गो रात मिरी सुब्ह की महरम तो नहीं है | शाही शायरी
go raat meri subh ki mahram to nahin hai

ग़ज़ल

गो रात मिरी सुब्ह की महरम तो नहीं है

मजरूह सुल्तानपुरी

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गो रात मिरी सुब्ह की महरम तो नहीं है
सूरज से तिरा रंग-ए-हिना कम तो नहीं है

कुछ ज़ख़्म ही खाएँ चलो कुछ गुल ही खिलाएँ
हर-चंद बहाराँ का ये मौसम तो नहीं है

चाहे वो किसी का हो लहू दामन-ए-गुल पर
सय्याद ये कल रात की शबनम तो नहीं है

इतनी भी हमें बंदिश-ए-ग़म कब थी गवारा
पर्दे में तिरी काकुल-ए-पुर-ख़म तो नहीं है

अब कारगह-ए-दहर में लगता है बहुत दिल
ऐ दोस्त कहीं ये भी तिरा ग़म तो नहीं है

सहरा में बगूला भी है 'मजरूह' सबा भी
हम सा कोई आवारा-ए-आलम तो नहीं है