अब याद कभी आए तो आईने से पूछो
'महबूब-ख़िज़ाँ' शाम को घर क्यूँ नहीं जाते
महबूब ख़िज़ां
बात ये है कि आदमी शाइर
या तो होता है या नहीं होता
महबूब ख़िज़ां
चाही थी दिल ने तुझ से वफ़ा कम बहुत ही कम
शायद इसी लिए है गिला कम बहुत ही कम
महबूब ख़िज़ां
देखो दुनिया है दिल है
अपनी अपनी मंज़िल है
महबूब ख़िज़ां
देखते हैं बे-नियाज़ाना गुज़र सकते नहीं
कितने जीते इस लिए होंगे कि मर सकते नहीं
महबूब ख़िज़ां
एक मोहब्बत काफ़ी है
बाक़ी उम्र इज़ाफ़ी है
महबूब ख़िज़ां
घबरा न सितम से न करम से न अदा से
हर मोड़ यहाँ राह दिखाने के लिए है
महबूब ख़िज़ां
हाए फिर फ़स्ल-ए-बहार आई 'ख़िज़ाँ'
कभी मरना कभी जीना है मुहाल
महबूब ख़िज़ां
हम आप क़यामत से गुज़र क्यूँ नहीं जाते
जीने की शिकायत है तो मर क्यूँ नहीं जाते
महबूब ख़िज़ां