चुभ रहा था दिल में हर दम कर रहा था बे-क़रार
इक अज़िय्यत-नाक पहलू जो मिरी राहत में था
करामत अली करामत
ग़म-ए-फ़िराक़ को सीने से लग के सोने दो
शब-ए-तवील की होगी सहर कभी न कभी
करामत अली करामत
ग़म-ए-हस्ती भला कब मो'तबर हो
मोहब्बत में न जब तक आँख तर हो
करामत अली करामत
हमेशा आग के दरिया में इश्क़ क्यूँ उतरे
कभी तो हुस्न को ग़र्क़-ए-अज़ाब होना था
करामत अली करामत
कोई ज़मीन है तो कोई आसमान है
हर शख़्स अपनी ज़ात में इक दास्तान है
करामत अली करामत
मैं लफ़्ज़ लफ़्ज़ में तुझ को तलाश करता हूँ
सवाल में नहीं आता न आ जवाब में आ
करामत अली करामत
मैं शु'आ-ए-ज़ात के सीने में गूँजा हूँ कभी
और 'करामत' मैं कभी लम्हों के ख़्वाबों में रहा
करामत अली करामत
मंज़िल पे भी पहुँच के मयस्सर नहीं सकूँ
मजबूर इस क़दर हैं शुऊर-ए-सफ़र से हम
करामत अली करामत
पतवार गिर गई थी समुंदर की गोद में
दिल का सफ़ीना फिर भी लहू के सफ़र में था
करामत अली करामत