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ये कौन कहता है तू हल्क़ा-ए-नक़ाब में आ? | शाही शायरी
ye kaun kahta hai tu halqa-e-naqab mein aa?

ग़ज़ल

ये कौन कहता है तू हल्क़ा-ए-नक़ाब में आ?

करामत अली करामत

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ये कौन कहता है तू हल्क़ा-ए-नक़ाब में आ?
शुऊर-ए-रंग-ए-वफ़ा बन के आफ़्ताब में आ

फ़ज़ा को तू ने मोअत्तर किया तो क्या हासिल?
मज़ा तो जब है कि फिर लौट कर गुलाब में आ

मैं लफ़्ज़ लफ़्ज़ में तुझ को तलाश करता हूँ
सवाल में नहीं आता न आ जवाब में आ

घुटा घुटा सा न रह तजरबों के महबस में
सरीर-ए-वक़्त की राहों से तू किताब में आ

जला के ताक़-ए-अदम में मसर्रतों के चराग़
तू आरज़ू के चमकते हुए सराब में आ

फ़लक की हद से परे है तिरी उड़ान तो क्या?
मगर कभी कभी धरती के इस अज़ाब में आ

अनानियत का नशा बन के छा न महफ़िल पर
उतरना है तो उतर कर शराब-ए-नाब में आ

'करामत' आज ज़माना जो दे रहा है दग़ा
ज़रा सी बात पे हरगिज़ न इज़्तिराब में आ