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बिमल कृष्ण अश्क शायरी | शाही शायरी

बिमल कृष्ण अश्क शेर

14 शेर

अब के बसंत आई तो आँखें उजड़ गईं
सरसों के खेत में कोई पत्ता हरा न था

बिमल कृष्ण अश्क




अब यही दुख है हमीं में थी कमी उस में न थी
उस को चाहा था मगर अपनी तरह चाहा न था

बिमल कृष्ण अश्क




ऐसा हुआ कि घर से न निकला तमाम दिन
जैसे कि ख़ुद से आज कोई काम था मुझे

बिमल कृष्ण अश्क




बदन ढाँपे हुए फिरता हूँ यानी
हवस के नाम पर धागा नहीं है

बिमल कृष्ण अश्क




बदन के लोच तक आज़ाद है वो
उसे तहज़ीब ने बाँधा नहीं है

बिमल कृष्ण अश्क




दायरा खींच के बैठा हूँ बड़ी मुद्दत से
ख़ुद से निकलूँ तो किसी और का रस्ता देखूँ

बिमल कृष्ण अश्क




देखने निकला हूँ दुनिया को मगर क्या देखूँ
जिस तरफ़ आँख उठाऊँ वही चेहरा देखूँ

बिमल कृष्ण अश्क




एक दुनिया ने तुझे देखा है लेकिन मैं ने
जैसे देखा है तुझे वैसे न देखा होता

बिमल कृष्ण अश्क




जिस्म में ख़्वाहिश न थी एहसास में काँटा न था
इस तरह जागा कि जैसे रात-भर सोया न था

बिमल कृष्ण अश्क