चाँद को रेशमी बादल से उलझता देखूँ
वो हवा है कभी आँचल कभी चेहरा देखूँ
देखने निकला हूँ दुनिया को मगर क्या देखूँ
जिस तरफ़ आँख उठाऊँ वही चेहरा देखूँ
दायरा खींच के बैठा हूँ बड़ी मुद्दत से
ख़ुद से निकलूँ तो किसी और का रस्ता देखूँ
ये वो दरवाज़ा है खोलूँ तो कोई आ न सके
और अगर बंद करूँ दिल ही में दुनिया देखूँ
वो अजब चीज़ है उस का कोई चेहरा ही नहीं
एक पर्दा जो उठे दूसरा पर्दा देखूँ
वो चका-चौंद है निकलेगा न घर से कोई
धूप अगर छिटके वो हँसता हुआ चेहरा देखूँ
मेरा साया हो कि मैं कोई तो धोका है ज़रूर
घर में आईना कि घर से परे दरिया देखूँ
कोई फल फूल नहीं मग़रिबी चट्टानों पर
चाँद जिस गाँव से उगता है वो दुनिया देखूँ
ग़ज़ल
चाँद को रेशमी बादल से उलझता देखूँ
बिमल कृष्ण अश्क