ऐसे में रोज़ रोज़ कोई ढूँडता मुझे
आवाज़ दे रही थी उधर की हवा मुझे
ऐसा हुआ कि घर से न निकला तमाम दिन
जैसे कि ख़ुद से आज कोई काम था मुझे
पर्दे के आस-पास कोई बाग़ ही न हो
खिड़की खुली तो फूल का धोका हुआ मुझे
ये पेड़ जिस पे फूल न पत्ती न टहनियाँ
दस बीस साल बाद जो ख़ुद सा लगा मुझे
मैं आज भी वही हूँ वफ़ा थी जिसे अज़ीज़
फ़ुर्सत मिले तो आ के कभी देख जा मुझे
आँखों में दिल उतर पड़ा आईना देख कर
आया था इक ख़याल बहुत दूर का मुझे
ये फ़िक्र आ पड़ी है कि बदले गए न हों
साए से कह रहा हूँ ज़रा देखना मुझे
कहते हैं यार-दोस्त अगर बेवफ़ा कहें
ऐ 'अश्क' आँसुओं ने भी क्या दे दिया मुझे
ग़ज़ल
ऐसे में रोज़ रोज़ कोई ढूँडता मुझे
बिमल कृष्ण अश्क