कैसे कहें कि चार तरफ़ दायरा न था
जाते कहाँ कि ख़ुद से परे रास्ता न था
जब साँस ले रही थी दरख़्तों के आस-पास
आवाज़ दे रही थी कोई बोलता न था
ख़ुद से चले तो रह-गुज़र आईना हो गई
अपने सिवाए और कोई सूझता न था
अब के बसंत आई तो आँखें उजड़ गईं
सरसों के खेत में कोई पत्ता हरा न था
पर्दा हिला के बाद-ए-सहर दूर तक गई
ख़ुश्बू किधर से आई किसी को पता न था
गुज़री तमाम उम्र उसी शहर में जहाँ
वाक़िफ़ सभी थे गो कोई पहचानता न था
ऐ 'अश्क' इक किताब पढ़ी थी वरक़ वरक़
वो तीरगी थी लफ़्ज़ कोई सूझता न था
ग़ज़ल
कैसे कहें कि चार तरफ़ दायरा न था
बिमल कृष्ण अश्क