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कैसे कहें कि चार तरफ़ दायरा न था | शाही शायरी
kaise kahen ki chaar taraf daera na tha

ग़ज़ल

कैसे कहें कि चार तरफ़ दायरा न था

बिमल कृष्ण अश्क

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कैसे कहें कि चार तरफ़ दायरा न था
जाते कहाँ कि ख़ुद से परे रास्ता न था

जब साँस ले रही थी दरख़्तों के आस-पास
आवाज़ दे रही थी कोई बोलता न था

ख़ुद से चले तो रह-गुज़र आईना हो गई
अपने सिवाए और कोई सूझता न था

अब के बसंत आई तो आँखें उजड़ गईं
सरसों के खेत में कोई पत्ता हरा न था

पर्दा हिला के बाद-ए-सहर दूर तक गई
ख़ुश्बू किधर से आई किसी को पता न था

गुज़री तमाम उम्र उसी शहर में जहाँ
वाक़िफ़ सभी थे गो कोई पहचानता न था

ऐ 'अश्क' इक किताब पढ़ी थी वरक़ वरक़
वो तीरगी थी लफ़्ज़ कोई सूझता न था