EN اردو
जिस्म में ख़्वाहिश न थी एहसास में काँटा न था | शाही शायरी
jism mein KHwahish na thi ehsas mein kanTa na tha

ग़ज़ल

जिस्म में ख़्वाहिश न थी एहसास में काँटा न था

बिमल कृष्ण अश्क

;

जिस्म में ख़्वाहिश न थी एहसास में काँटा न था
इस तरह जागा कि जैसे रात-भर सोया न था

अब यही दुख है हमीं में थी कमी उस में न थी
उस को चाहा था मगर अपनी तरह चाहा न था

जाने वाले वक़्त ने देखा था मुड़ कर एक बार
गो हमें पहचानता कम था मगर भूला न था

हम बहुत काफ़ी थे अपने वास्ते जैसे भी थे
कोई हम सा दोस्त कोई हम सा बेगाना न था

अजनबी राहें न जाने किस तरह आवाज़ दें
जब सफ़र पर चल पड़े थे किस लिए सोचा न था

पाँव का चक्कर लिए फिरता रहेगा दोस्तो
और फिर सोचोगे अपने शहर में क्या क्या न था

हम भी उन रातों में थाली पर दिया रख कर चले
जब शिवाले की इमारत का कोई दर वा न था

फ़र्ज़ की मंज़िल ने मेरी गुमरही भी छीन ली
वर्ना 'अश्क' इस रस्ती-बस्ती राह में क्या क्या न था