बुझती आँखों में तिरे ख़्वाब का बोसा रक्खा
रात फिर हम ने अँधेरों में उजाला रक्खा
आलोक मिश्रा
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एक पत्ता हूँ शाख़ से बिछड़ा
जाने बह कर मैं किस दिशा जाऊँ
आलोक मिश्रा
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जाने किस बात से दुखा है बहुत
दिल कई रोज़ से ख़फ़ा है बहुत
आलोक मिश्रा
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जब से देखा है ख़्वाब में उस को
दिल मुसलसल किसी सफ़र में है
आलोक मिश्रा
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क्या क़यामत है कि तेरी ही तरह से मुझ से
ज़िंदगी ने भी बहुत दूर का रिश्ता रक्खा
आलोक मिश्रा
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मैं भी बिखरा हुआ हूँ अपनों में
वो भी तन्हा सा अपने घर में है
आलोक मिश्रा
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सब सितारे दिलासा देते हैं
चाँद रातों को चीख़ता है बहुत
आलोक मिश्रा