बुझती आँखों में तिरे ख़्वाब का बोसा रक्खा
रात फिर हम ने अँधेरों में उजाला रक्खा
ज़ख़्म सीने में तो आँखों में समुंदर ठहरा
दर्द को मैं ने मुझे दर्द ने ज़िंदा रक्खा
साथ रहता था मगर साथ नहीं था मेरे
उस की क़ुर्बत ने भी अक्सर मुझे तन्हा रक्खा
वक़्त के साथ तुझे भूल ही जाता लेकिन
इक हरे ख़त ने मिरे ज़ख़्म को ताज़ा रक्खा
मेरा ईमाँ न टिका पाईं हज़ारों शक्लें
मेरी आँखों ने तिरे प्यार में रोज़ा रक्खा
क्या क़यामत है कि तेरी ही तरह से मुझ से
ज़िंदगी ने भी बहुत दूर का रिश्ता रक्खा
ग़ज़ल
बुझती आँखों में तिरे ख़्वाब का बोसा रक्खा
आलोक मिश्रा