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आलमताब तिश्ना शायरी | शाही शायरी

आलमताब तिश्ना शेर

14 शेर

बन के ताबीर भी आया होता
नित-नए ख़्वाब दिखाने वाला

आलमताब तिश्ना




हद हो गई थी हम से मोहब्बत में कुफ़्र की
जैसे ख़ुदा-न-ख़्वास्ता वो ला-शरीक था

आलमताब तिश्ना




हम अपने इश्क़ की अब और क्या शहादत दें
हमें हमारे रक़ीबों ने मो'तबर जाना

आलमताब तिश्ना




हर दौर में रहा यही आईन-ए-मुंसिफ़ी
जो सर न झुक सके वो क़लम कर दिए गए

आलमताब तिश्ना




इस राह-ए-मोहब्बत में तू साथ अगर होता
हर गाम पे गुल खिलते ख़ुशबू का सफ़र होता

आलमताब तिश्ना




मा-सिवा-ए-कार-ए-आह-ओ-अश्क क्या है इश्क़ में
है सवाद-ए-आब-ओ-आतिश दीदा ओ दिल के क़रीब

आलमताब तिश्ना




मैं जब भी घर से निकलता हूँ रात को तन्हा
चराग़ ले के कोई साथ साथ चलता है

आलमताब तिश्ना




नफ़रत भी उसी से है परस्तिश भी उसी की
इस दिल सा कोई हम ने तो काफ़र नहीं देखा

आलमताब तिश्ना




पहले निसाब-ए-अक़्ल हुआ हम से इंतिसाब
फिर यूँ हुआ कि क़त्ल भी हम कर दिए गए

आलमताब तिश्ना