मैं अपनी जंग में तन-ए-तन्हा शरीक था
दुश्मन के साथ सारा ज़माना शरीक था
इंजीर ओ शीर बाँटता फिरता है शहर में
कल तक जो मेरी नान-ए-जवीं का शरीक था
मेरे ख़िलाफ़ है वो गवाही में पेश पेश
मंसूबा-बंदियों में जो मेरा शरीक था
मेरे क़िसास का भी हुआ है वो मुद्दई
जो मेरे क़त्ल में पस-ए-पर्दा शरीक था
कार-ए-जहाँ में भी वही मेरा शरीक है
दुख-दर्द में जो लम्हा-ब-लम्हा शरीक था
कश्ती के डूबने का मुझे ग़म नहीं मगर
मौजों की साज़-बाज़ में दरिया शरीक था
हद हो गई थी हम से मोहब्बत में कुफ़्र की
जैसे ख़ुदा-न-ख़्वास्ता वो ला-शरीक था
'तिश्ना' ये तुझ को संग-ए-मलामत उसी के हैं
पिंदार-ए-इश्क़ में जो अना का शरीक था
ग़ज़ल
मैं अपनी जंग में तन-ए-तन्हा शरीक था
आलमताब तिश्ना