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सिवाए-दर-ब-दरी उस को ख़ाक मिलता है | शाही शायरी
siwae-dar-ba-dari usko KHak milta hai

ग़ज़ल

सिवाए-दर-ब-दरी उस को ख़ाक मिलता है

आलमताब तिश्ना

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सिवाए-दर-ब-दरी उस को ख़ाक मिलता है
जो आसमान से अपनी ज़मीं बदलता है

मैं जब भी घर से निकलता हूँ रात को तन्हा
चराग़ ले के कोई साथ साथ चलता है

अजीब होता है नज़्ज़रगान-ए-शौक़ का हाल
रिदा-ए-माह पहन कर वो जब निकलता है

बरु-ए-चश्म रिदा-ए-हिजाब तान ली जाए
वो ज़ेर-ए-साया-ए-गुल पैरहन बदलता है

फ़रेब-ए-क़ुर्ब तो देखो कि मेरे पहलू में
तमाम रात कोई करवटें बदलता है

गुज़ार देते हैं आवारा-गर्द आग के गिर्द
जो बे-ठिकाना हैं उन का भी काम चलता है

हमारे दम से भी है मौसमों की गुल-कारी
चराग़-ए-लाला में दिल का लहू भी जलता है

मैं वो शहीद-ए-वफ़ा हूँ कि क़त्ल कर के मुझे
मिरा ग़नीम तअस्सुफ़ से हाथ मलता है

हमें नसीब हुआ ऐसी मंज़िलों का सफ़र
क़दम क़दम पे जहाँ रास्ता बदलता है

हवा-ए-दामन-ए-रंगीं ये कह गई 'तिश्ना'
हमारे सामने किस का चराग़ जलता है