अब दर्द भी इक हद से गुज़रने नहीं पाता
अब हिज्र में वो पहली सी वहशत नहीं होती
अकरम महमूद
अब दिल भी दुखाओ तो अज़िय्यत नहीं होती
हैरत है किसी बात पे हैरत नहीं होती
अकरम महमूद
अजब तक़ाज़ा है मुझ से जुदा न होने का
कि जैसे कौन-ओ-मकाँ मेरे इख़्तियार में है
अकरम महमूद
बस इतना याद है इक भूल सी हुई थी कहीं
अब इस से बढ़ के दुखों का हिसाब क्या रखना
अकरम महमूद
चढ़े हुए हैं जो दरिया उतर भी जाएँगे
मिरे बग़ैर तिरे दिन गुज़र भी जाएँगे
अकरम महमूद
देख ये दिल जो कभी हद से गुज़र जाता था
देख दरिया में कोई शोर न तुग़्यानी है
अकरम महमूद
दिल ख़ुश जो नहीं रहता तो इस का भी सबब है
मौजूद कोई वज्ह-ए-मसर्रत नहीं होती
अकरम महमूद
दो चार बरस जितने भी हैं जब्र ही सह लें
इस उम्र में अब हम से बग़ावत नहीं होती
अकरम महमूद
गुम तो होना था ब-हर-हाल किसी मंज़र में
दिल हुआ ख़्वाब में गुम आँख हुई आब में गुम
अकरम महमूद