बंदिशें इश्क़ में दुनिया से निराली देखें
दिल तड़प जाए मगर लब न हिलाए कोई
आले रज़ा रज़ा
दर्द-ए-दिल और जान-लेवा पुर्सिशें
एक बीमारी की सौ बीमारियाँ
आले रज़ा रज़ा
हम ने बे-इंतिहा वफ़ा कर के
बे-वफ़ाओं से इंतिक़ाम लिया
आले रज़ा रज़ा
क़िस्मत में ख़ुशी जितनी थी हुई और ग़म भी है जितना होना है
घर फूँक तमाशा देख चुके अब जंगल जंगल रोना है
आले रज़ा रज़ा
समझ तो ये कि न समझे ख़ुद अपना रंग-ए-जुनूँ
मिज़ाज ये कि ज़माना मिज़ाज-दाँ होता
आले रज़ा रज़ा
तुम 'रज़ा' बन के मुसलमान जो काफ़िर ही रहे
तुम से बेहतर है वो काफ़िर जो मुसलमाँ न हुआ
आले रज़ा रज़ा
उन के सितम भी कह नहीं सकते किसी से हम
घुट घुट के मर रहे हैं अजब बेबसी से हम
आले रज़ा रज़ा
उस बेवफ़ा से कर के वफ़ा मर-मिटा 'रज़ा'
इक क़िस्सा-ए-तवील का ये इख़्तिसार है
आले रज़ा रज़ा