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शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था | शाही शायरी
shab-e-wasl thi chandni ka saman tha

ग़ज़ल

शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था

हैदर अली आतिश

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शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था
बग़ल में सनम था ख़ुदा मेहरबाँ था

मुबारक शब-ए-क़द्र से भी वो शब थी
सहर तक मह ओ मुश्तरी का क़िराँ था

वो शब थी कि थी रौशनी जिस में दिन की
ज़मीं पर से इक नूर ता आसमाँ था

निकाले थे दो चाँद उस ने मुक़ाबिल
वो शब सुब्ह-ए-जन्नत का जिस पर गुमाँ था

उरूसी की शब की हलावत थी हासिल
फ़रह-नाक थी रूह दिल शादमाँ था

मुशाहिद जमाल-ए-परी की थी आँखें
मकान-ए-विसाल इक तिलिस्मी मकाँ था

हुज़ूरी निगाहों को दीदार से थी
खुला था वो पर्दा कि जो दरमियाँ था

किया था उसे बोसा-बाज़ी ने पैदा
कमर की तरह से जो ग़ाएब दहाँ था

हक़ीक़त दिखाता था इश्क़-ए-मजाज़ी
निहाँ जिस को समझे हुए थे अयाँ था

बयाँ ख़्वाब की तरह जो कर रहा है
ये क़िस्सा है जब का कि 'आतिश' जवाँ था