अगर है इंसान का मुक़द्दर ख़ुद अपनी मिट्टी का रिज़्क़ होना
तो फिर ज़मीं पर ये आसमाँ का वजूद किस क़हर के लिए है
ग़ुलाम हुसैन साजिद
गिरेगी कल भी यही धूप और यही शबनम
इस आसमाँ से नहीं और कुछ उतरने का
हकीम मंज़ूर
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बदले हुए से लगते हैं अब मौसमों के रंग
पड़ता है आसमान का साया ज़मीन पर
हमदम कशमीरी
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ज़मीन की कोख ही ज़ख़्मी नहीं अंधेरों से
है आसमाँ के भी सीने पे आफ़्ताब का ज़ख़्म
इब्न-ए-सफ़ी
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यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या
जौन एलिया
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ज़र्रा समझ के यूँ न मिला मुझ को ख़ाक में
ऐ आसमान मैं भी कभी आफ़्ताब था
लाला माधव राम जौहर
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आसमान पर जा पहुँचूँ
अल्लाह तेरा नाम लिखूँ
मोहम्मद अल्वी