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है इज़्तिराब हर इक रंग को बिखरने का | शाही शायरी
hai iztirab har ek rang ko bikharne ka

ग़ज़ल

है इज़्तिराब हर इक रंग को बिखरने का

हकीम मंज़ूर

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है इज़्तिराब हर इक रंग को बिखरने का
कि आफ़्ताब नहीं रात भर ठहरने का

मुजस्समे की तरह मौसमों को सहता है
वो मुंतज़िर है कोई हादसा गुज़रने का

लटकते सूखते ये नक़्श यूँही रोएँगे
गुज़र गया है जो मौसम था रंग भरने का

वो आइने से अगर हो गया है बे-परवा
जवाज़ क्या है उसे फिर किसी से डरने का

गिरेगी कल भी यही धूप और यही शबनम
इस आसमाँ से नहीं और कुछ उतरने का

अब आग आग है नीले पहाड़ का मंज़र
हमें था शौक़ बहुत उस के पार उतरने का

अगरचे उस की हर इक बात खुरदुरी है बहुत
मुझे पसंद है ढंग उस के बात करने का

दिया है जिस ने भी चुप का शराप लफ़्ज़ों को
उसे ख़बर है नहीं लफ़्ज़ कोई मरने का

हमें ख़बर है हमारे सफ़र की ऐ 'मंज़ूर'
कहेंगे हम ही न है रास्ता सँवरने का