EN اردو
मिरी विरासत में जो भी कुछ है वो सब इसी दहर के लिए है | शाही शायरी
meri wirasat mein jo bhi kuchh hai wo sab isi dahr ke liye hai

ग़ज़ल

मिरी विरासत में जो भी कुछ है वो सब इसी दहर के लिए है

ग़ुलाम हुसैन साजिद

;

मिरी विरासत में जो भी कुछ है वो सब इसी दहर के लिए है
ये रंग इक ख़्वाब के लिए है ये आग इक शहर के लिए है

अगर इसी रात की सियाही के साथ खो जाएँगे सितारे
तो फिर ये मेरे लहू का रौशन चराग़ किस लहर के लिए है

तुलू-ए-इम्कान-ए-आरज़ू पर यक़ीन रखती है एक दुनिया
मगर ये बे-कार ख़्वाहिशों की नुमूद इक ज़हर के लिए है

कनार-ए-दरिया है एक मद्धम ग़ुबार किस दश्त का पड़ाव
दरुन-ए-सहरा ये आब-ए-हैवाँ का नक़्श किस नहर के लिए है

ये ख़्वाब होते हुए सहीफ़ों के फूल मेरे लिए हैं लेकिन
ज़मीन-ए-दिल पर ये आयतों का नुज़ूल इक दहर के लिए है

बस एक इंसान की ख़ुशी है किसी हक़ीक़त की रू-नुमाई
मगर किसी ख़्वाब के ज़ियाँ का मलाल इक शहर के लिए है

अगर है इंसान का मुक़द्दर ख़ुद अपनी मिट्टी का रिज़्क़ होना
तो फिर ज़मीं पर ये आसमाँ का वजूद किस क़हर के लिए है