क्या याद कर के रोऊँ कि कैसा शबाब था
कुछ भी न था हवा थी कहानी थी ख़्वाब था
अब इत्र भी मलो तो तकल्लुफ़ की बू कहाँ
वो दिन हवा हुए जो पसीना गुलाब था
महमिल-नशीं जब आप थे लैला के भेस में
मजनूँ के भेस में कोई ख़ाना-ख़राब था
तेरा क़ुसूर-वार ख़ुदा का गुनाहगार
जो कुछ कि था यही दिल-ए-ख़ाना-ख़राब था
ज़र्रा समझ के यूँ न मिला मुझ को ख़ाक में
ऐ आसमान मैं भी कभी आफ़्ताब था
ग़ज़ल
क्या याद कर के रोऊँ कि कैसा शबाब था
लाला माधव राम जौहर