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2 लाइन शायरी शायरी | शाही शायरी

2 लाइन शायरी

22761 शेर

मस्जिद हो मदरसा हो कि मज्लिस कि मय-कदा
महफ़ूज़ शर से कुछ है तो घर है चले-चलो

वहीद अख़्तर




मस्जिद हो मदरसा हो कि मज्लिस कि मय-कदा
महफ़ूज़ शर से कुछ है तो घर है चले-चलो

वहीद अख़्तर




मिरी उड़ान अगर मुझ को नीचे आने दे
तो आसमान की गहराई में उतर जाऊँ

वहीद अख़्तर




नींद बन कर मिरी आँखों से मिरे ख़ूँ में उतर
रत-जगा ख़त्म हो और रात मुकम्मल हो जाए

वहीद अख़्तर




नींद बन कर मिरी आँखों से मिरे ख़ूँ में उतर
रत-जगा ख़त्म हो और रात मुकम्मल हो जाए

वहीद अख़्तर




ठहरी है तो इक चेहरे पे ठहरी रही बरसों
भटकी है तो फिर आँख भटकती ही रही है

वहीद अख़्तर




तू ग़ज़ल बन के उतर बात मुकम्मल हो जाए
मुंतज़िर दिल की मुनाजात मुकम्मल हो जाए

वहीद अख़्तर