इक दश्त-ए-बे-अमाँ का सफ़र है चले-चलो
रुकने में जान ओ दिल का ज़रर है चले-चलो
हुक्काम ओ सारेक़ीन की गो रह-गुज़र है घर
फिर भी बराए-बैत तो दर है चले-चलो
मस्जिद हो मदरसा हो कि मज्लिस कि मय-कदा
महफ़ूज़ शर से कुछ है तो घर है चले-चलो
ज़ुल्मत है याँ भी वाँ भी अंधेरे ही हों तो क्या
नूर इक वरा-ए-हद्द-ए-नज़र है चले-चलो
उतरा किनार-ए-बहर-ए-अत्श एक क़ाफ़िला
ख़त्म उस पे तिश्नगी का सफ़र है चले-चलो
सर तक पहुँच न जाए कोई तेज़-गाम लहर
याँ ख़ूँ की मौज ता-ब-कमर है चले-चलो
जाँ के ज़ियाँ का डर है तलब में अगर तो हो
तर्क-ए-तलब में भी तो ख़तर है चले-चलो
ग़ज़ल
इक दश्त-ए-बे-अमाँ का सफ़र है चले-चलो
वहीद अख़्तर