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ख़ुश्बू है कभी गुल है कभी शम्अ कभी है | शाही शायरी
KHushbu hai kabhi gul hai kabhi shama kabhi hai

ग़ज़ल

ख़ुश्बू है कभी गुल है कभी शम्अ कभी है

वहीद अख़्तर

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ख़ुश्बू है कभी गुल है कभी शम्अ कभी है
वो आतिश-ए-सय्याल जो सीने में भरी है

बादा-तलबी शौक़ की दरयूज़ा-गरी है
सद-शुक्र कि तक़दीर ही याँ तिश्ना-लबी है

ग़ुंचों के चटकने का समाँ दिल में अभी है
मिलने में जो उठ उठ के नज़र उन की झुकी है

अब ज़ब्त से कह दे कि ये रुख़्सत की घड़ी है
ऐ वहशत-ए-ग़म देर से क्या सोच रही है

मासूम है याद उन की भटक जाए न रस्ता
ख़ूँ-गश्ता तमन्नाओं की क्यूँ भीड़ लगी है

यादों से कहो सोला-सिंगार आज कराएँ
आईना-ब-कफ़ हसरत-ए-दीदार खड़ी है

लब सी लिए अंदेशा-ए-दुश्नाम-ए-जहाँ से
अब अपनी ख़मोशी ही इक अफ़्साना बनी है

ठहरी है तो इक चेहरे पे ठहरी रही बरसों
भटकी है तो फिर आँख भटकती ही रही है