क्या अजब लोग थे गुज़रे हैं बड़ी शान के साथ
रास्ते चुप हैं मगर नक़्श-ए-क़दम बोलते हैं
तारिक़ क़मर
क्या अजब लोग थे गुज़रे हैं बड़ी शान के साथ
रास्ते चुप हैं मगर नक़्श-ए-क़दम बोलते हैं
तारिक़ क़मर
मैं चाहता हूँ कभी यूँ भी हो कि मेरी तरह
वो मुझ को ढूँडने निकले मगर न पाए मुझे
तारिक़ क़मर
मेरे ज़ख़्मों का सबब पूछेगी दुनिया तुम से
मैं ने हर ज़ख़्म की पहचान में रक्खा है तुम्हें
तारिक़ क़मर
मेरे ज़ख़्मों का सबब पूछेगी दुनिया तुम से
मैं ने हर ज़ख़्म की पहचान में रक्खा है तुम्हें
तारिक़ क़मर
मिज़ाज अपना मिला ही नहीं ज़माने से
न मैं हुआ कभी इस का न ये ज़माना मिरा
तारिक़ क़मर
फिर आज भूक हमारा शिकार कर लेगी
कि रात हो गई दरिया में जाल डाले हुए
तारिक़ क़मर