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अपनी पलकों के शबिस्तान में रक्खा है तुम्हें | शाही शायरी
apni palkon ke shabistan mein rakkha hai tumhein

ग़ज़ल

अपनी पलकों के शबिस्तान में रक्खा है तुम्हें

तारिक़ क़मर

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अपनी पलकों के शबिस्तान में रक्खा है तुम्हें
तुम सहीफ़ा हो सो जुज़दान में रक्खा है तुम्हें

साथ होने के यक़ीं में भी मिरे साथ हो तुम
और न होने के भी इम्कान में रक्खा है तुम्हें

एक कम-ज़र्फ़ के साए से भली है ये धूप
तुम समझते हो कि नुक़सान में रक्खा है तुम्हें

जितने आँसू हैं सभी नज़्र किए हैं तुम को
हम ने हर शेर के विज्दान में रक्खा है तुम्हें

दिल तो दीवाना है अपना ही उसे होश नहीं
इस लिए दिल में नहीं जान में रक्खा है तुम्हें

मेरे ज़ख़्मों का सबब पूछेगी दुनिया तुम से
मैं ने हर ज़ख़्म की पहचान में रक्खा है तुम्हें