सारे ज़ख़्मों को ज़बाँ मिल गई ग़म बोलते हैं
हम मगर ज़र्फ़ से मजबूर हैं कम बोलते हैं
किस क़दर तोड़ दिया है उसे ख़ामोशी ने
कोई बोले वो समझता है कि हम बोलते हैं
क्या अजब लोग थे गुज़रे हैं बड़ी शान के साथ
रास्ते चुप हैं मगर नक़्श-ए-क़दम बोलते हैं
वक़्त वो है कि ख़ुदा ख़ैर, ब-नाम-ए-ईमाँ
दैर वालों की ज़बाँ अहल-ए-हरम बोलते हैं
कहते हैं ज़र्फ़ का सौदा नहीं करते हम लोग
किस क़दर झूट ये सब अहल-ए-क़लम बोलते हैं
कहीं रहते हैं दर-ओ-बाम नदामत से ख़मोश
बिखरी ईंटों में कहीं जाह-ओ-हशम बोलते हैं
बात भी करते हैं एहसान जताने की तरह
कैसे लहजे में ये अब अहल-ए-करम बोलते हैं
कौन ये पुर्सिश-ए-अहवाल को आया 'तारिक़'
लब हैं ख़ामोश मगर दीदा-ए-नम बोलते हैं
ग़ज़ल
सारे ज़ख़्मों को ज़बाँ मिल गई ग़म बोलते हैं
तारिक़ क़मर