एक है जब मरजा-ए-इस्लाम-ओ-कुफ़्र
फ़र्क़ कैसा सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार का
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
घर की वीरानी को क्या रोऊँ कि ये पहले सी
तंग इतना है कि गुंजाइश-ए-ता'मीर नहीं
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
है दौर-ए-फ़लक ज़ोफ़ में पेश-ए-नज़र अपने
किस वक़्त हम उठते हैं कि चक्कर नहीं आता
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
है ईद मय-कदे को चलो देखता है कौन
शहद ओ शकर पे टूट पड़े रोज़ा-दार आज
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
है ईद मय-कदे को चलो देखता है कौन
शहद ओ शकर पे टूट पड़े रोज़ा-दार आज
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
है जल्वा-फ़रोशी की दुकाँ जो ये अब इसी ने
दीवार में खिड़की सर-ए-बाज़ार निकाली
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
है रिश्ता एक फिर ये कशाकश न चाहिए
अच्छा नहीं है सुब्हा का ज़ुन्नार से बिगाड़
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम