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2 लाइन शायरी शायरी | शाही शायरी

2 लाइन शायरी

22761 शेर

एक है जब मरजा-ए-इस्लाम-ओ-कुफ़्र
फ़र्क़ कैसा सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार का

सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम




घर की वीरानी को क्या रोऊँ कि ये पहले सी
तंग इतना है कि गुंजाइश-ए-ता'मीर नहीं

सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम




है दौर-ए-फ़लक ज़ोफ़ में पेश-ए-नज़र अपने
किस वक़्त हम उठते हैं कि चक्कर नहीं आता

सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम




है ईद मय-कदे को चलो देखता है कौन
शहद ओ शकर पे टूट पड़े रोज़ा-दार आज

सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम




है ईद मय-कदे को चलो देखता है कौन
शहद ओ शकर पे टूट पड़े रोज़ा-दार आज

सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम




है जल्वा-फ़रोशी की दुकाँ जो ये अब इसी ने
दीवार में खिड़की सर-ए-बाज़ार निकाली

सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम




है रिश्ता एक फिर ये कशाकश न चाहिए
अच्छा नहीं है सुब्हा का ज़ुन्नार से बिगाड़

सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम