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2 लाइन शायरी शायरी | शाही शायरी

2 लाइन शायरी

22761 शेर

बा'द रंजिश के गले मिलते हुए रुकता है दिल
अब मुनासिब है यही कुछ मैं बढ़ूँ कुछ तू बढ़े

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़




बाक़ी है दिल में शैख़ के हसरत गुनाह की
काला करेगा मुँह भी जो दाढ़ी सियाह की

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़




बैठे भरे हुए हैं ख़ुम-ए-मय की तरह हम
पर क्या करें कि मोहर है मुँह पर लगी हुई

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़




बजा कहे जिसे आलम उसे बजा समझो
ज़बान-ए-ख़ल्क़ को नक़्क़ारा-ए-ख़ुदा समझो

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़




बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करें जो काम न बे-दिल-लगी चले

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़




बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करें जो काम न बे-दिल-लगी चले

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़




बे-क़रारी का सबब हर काम की उम्मीद है
ना-उमीदी हो तो फिर आराम की उम्मीद है

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़