पारसा बन के सू-ए-मय-ख़ाना
सर झुकाए हुए हम जाते हैं
शरफ़ मुजद्दिदी
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क़दमों पे गिरा तो हट के बोले
अंधा है तो देखता नहीं है
शरफ़ मुजद्दिदी
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शैख़ कुछ अपने-आप को समझें
मय-कशों की नज़र में कुछ भी नहीं
शरफ़ मुजद्दिदी
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शैख़ कुछ अपने-आप को समझें
मय-कशों की नज़र में कुछ भी नहीं
शरफ़ मुजद्दिदी
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तमाम चारागरों से तो मिल चुका है जवाब
तुम्हें भी दर्द-ए-मोहब्बत सुनाए देते हैं
शरफ़ मुजद्दिदी
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तसव्वुर ने तिरे आबाद जब से घर किया मेरा
निकलता ही नहीं दिन रात अपने घर में रहता है
शरफ़ मुजद्दिदी
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तसव्वुर ने तिरे आबाद जब से घर किया मेरा
निकलता ही नहीं दिन रात अपने घर में रहता है
शरफ़ मुजद्दिदी
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