घर में आसेब ज़लज़ले का है
इस लिए ख़ुद में ही सिमट के हैं
शमीम क़ासमी
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घर में आसेब ज़लज़ले का है
इस लिए ख़ुद में ही सिमट के हैं
शमीम क़ासमी
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मूए ने मुँह की खाई फिर भी ये ज़ोर ज़ोरी
ये रेख़्ती है भाई तुम रेख़्ता तो जानो
शमीम क़ासमी
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शहर में अम्न-ओ-अमाँ हो ये ज़रूरी है मगर
हाकिम-ए-वक़त के माथे पे लिखा ही कुछ है
शमीम क़ासमी
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शहर में अम्न-ओ-अमाँ हो ये ज़रूरी है मगर
हाकिम-ए-वक़त के माथे पे लिखा ही कुछ है
शमीम क़ासमी
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इक शख़्स तेरी बज़्म से ख़ामोश उठ गया
शायद ये बात तेरे लिए सोचने की थी
शमीम रविश
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मुझे हर शाम इक सुनसान जंगल खींच लेता है
और इस के बाद फिर ख़ूनी बलाएँ रक़्स करती हैं
शमीम रविश