रात आई है बच्चों को पढ़ाने में लगा हूँ
ख़ुद जो न बना उन को बनाने में लगा हूँ
वो शख़्स तो रग रग में मिरी गूँज रहा है
बरसों से गला जिस का दबाने में लगा हूँ
उतरा हूँ दिया ले के निहाँ-ख़ाना-ए-जाँ में
सोए सोए आसेब जगाने में लगा हूँ
पत्थर हूँ तो शीशे से मुझे काम पड़ा है
शीशा हूँ तो पत्थर के ज़माने में लगा हूँ
फ़नकार ब-ज़िद है कि लगाएगा नुमाइश
मैं हूँ कि हर इक ज़ख़्म छुपाने में लगा हूँ
कुछ पढ़ना है कुछ लिखना है कुछ रोना है शब को
मैं काम सर-ए-शाम चुकाने में लगा हूँ
ऐसे में तो अब सब्र भी मुश्किल हुआ 'अकबर'
सब कहते हैं मैं उस को भुलाने में लगा हूँ
ग़ज़ल
रात आई है बच्चों को पढ़ाने में लगा हूँ
अकबर हमीदी