उट्ठी हैं मेरी ख़ाक से आफ़ात सब की सब
नाज़िल हुई न कोई बला आसमान से
शहज़ाद अहमद
वाक़िआ कुछ भी हो सच कहने में रुस्वाई है
क्यूँ न ख़ामोश रहूँ अहल-ए-नज़र कहलाऊँ
शहज़ाद अहमद
वाक़िआ कुछ भी हो सच कहने में रुस्वाई है
क्यूँ न ख़ामोश रहूँ अहल-ए-नज़र कहलाऊँ
शहज़ाद अहमद
वाक़िआ ये है कि रस्ता और वीराँ हो गया
पेड़ तो अपनी तरफ़ से फूल बरसाते रहे
शहज़ाद अहमद
वीरान तो नहीं शब-ए-तारीक की फ़ज़ा
हर-सू हवा-ए-बादा से कुछ रौशनी तो है
शहज़ाद अहमद
वीरान तो नहीं शब-ए-तारीक की फ़ज़ा
हर-सू हवा-ए-बादा से कुछ रौशनी तो है
शहज़ाद अहमद
वो कौन है उसे सूरज कहूँ कि रंग कहूँ
करूँगा ज़िक्र तो ख़ुश्बू ज़बाँ से आएगी
शहज़ाद अहमद