हिज्र का दिन क्यूँ चढ़ने पाए
वस्ल की शब तूलानी कर दो
अजीत सिंह हसरत
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हिज्र का दिन क्यूँ चढ़ने पाए
वस्ल की शब तूलानी कर दो
अजीत सिंह हसरत
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जिन्हें था शौक़ मेला देखने का
वो सारे लोग अपने घर गए हैं
अजीत सिंह हसरत
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जिस में इंसानियत नहीं रहती
हम दरिंदे हैं ऐसे जंगल के
अजीत सिंह हसरत
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कभी मैं रोते रोते हँस दिया करता हूँ पागल सा
कभी मैं हँसते हँसते आँसुओं से भीग जाता हूँ
अजीत सिंह हसरत
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ख़ाक में मिलना था आख़िर बे-निशाँ होना ही था
जलने वाले के मुक़द्दर में धुआँ होना ही था
अजीत सिंह हसरत
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मैं गहरे पानियों को चीर देता हूँ मगर 'हसरत'
जहाँ पानी बहुत कम हो वहाँ मैं डूब जाता हूँ
अजीत सिंह हसरत
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