चारा-गर सब के पास जाता था
सिर्फ़ बीमार तक नहीं पहुँचा
अजय सहाब
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एक मुद्दत से धधकता रहा मेरा ये ज़ेहन
तब कहीं जा के फ़रोज़ाँ हुए लफ़्ज़ों के चराग़
अजय सहाब
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फ़न जो मेआ'र तक नहीं पहुँचा
अपने शहकार तक नहीं पहुँचा
अजय सहाब
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हादसे जान तो लेते हैं मगर सच ये है
हादसे ही हमें जीना भी सिखा देते हैं
अजय सहाब
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हर आदमी के क़द से उस की क़बा बड़ी है
सूरज पहन के निकले धुँदले चराग़ यारो
अजय सहाब
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हर ख़ुदा जन्नतों में है महदूद
कोई संसार तक नहीं पहुँचा
अजय सहाब
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इक बंद हो गया है तो खोलेंगे बाब और
उभरेंगे अपनी रात से सौ आफ़्ताब और
अजय सहाब
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