घोंसले राख हो गए जल के
मिट गए सब निशान जंगल के
आग बरसा के उड़ गया बादल
पर निकल आए मूए बादल के
चीथड़े ओढ़ कर जो सोता हूँ
ख़्वाब आते हैं मुझ को मख़मल के
साँप उन से लिपट गए अक्सर
हम ने बोए थे पेड़ संदल के
जिस में इंसानियत नहीं रहती
हम दरिंदे हैं ऐसे जंगल के
जो हवा पर सवार हो साहब
कब वो चलता है साथ पैदल के
आओ बच्चों का एहतिराम करें
ये तो वारिस हैं साहिबो कल के
अपना हक़ बढ़ के छीन लो यारो
यूँ दिखाओ न हाथ मल मल के
कुछ बताता नहीं तिरा 'हसरत'
जाने अब दिल में क्या है पागल के
ग़ज़ल
घोंसले राख हो गए जल के
अजीत सिंह हसरत