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शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ शायरी | शाही शायरी

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ शेर

69 शेर

कितने मुफ़लिस हो गए कितने तवंगर हो गए
ख़ाक में जब मिल गए दोनों बराबर हो गए

however many paupers passed, and wealthy went and came
when they were consigned to dust they were all the same

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़




ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े
हुस्न की सरकार में जितने बढ़े हिन्दू बढ़े

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़




कल जहाँ से कि उठा लाए थे अहबाब मुझे
ले चला आज वहीं फिर दिल-ए-बे-ताब मुझे

the place from where my friends had picked me yesterday
my restless heart takes me again to that place today

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़




जो कहोगे तुम कहेंगे हम भी हाँ यूँ ही सही
आप की गर यूँ ख़ुशी है मेहरबाँ यूँ ही सही

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़




इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़




हो उम्र-ए-ख़िज़्र भी तो हो मालूम वक़्त-ए-मर्ग
हम क्या रहे यहाँ अभी आए अभी चले

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़




हक़ ने तुझ को इक ज़बाँ दी और दिए हैं कान दो
इस के ये मअ'नी कहे इक और सुने इंसान दो

the lord did on our face one mouth and two ears array
for to listen twich as much as we are wont to say

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़




आदमिय्यत और शय है इल्म है कुछ और शय
कितना तोते को पढ़ाया पर वो हैवाँ ही रहा

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़




हम रोने पे आ जाएँ तो दरिया ही बहा दें
शबनम की तरह से हमें रोना नहीं आता

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़