जब चला वो मुझ को बिस्मिल ख़ूँ में ग़लताँ छोड़ कर
क्या ही पछताता था मैं क़ातिल का दामाँ छोड़ कर
मैं वो मजनूँ हूँ जो निकलूँ कुंज-ए-ज़िंदाँ छोड़ कर
सेब-ए-जन्नत तक न खाऊँ संग-ए-तिफ़्लाँ छोड़ कर
पीवे मेरा ही लहू मानी जो लब उस शोख़ के
खींचे तो शंगर्फ़ से ख़ून-ए-शहीदाँ छोड़ कर
मैं हूँ वो गुमनाम जब दफ़्तर में नाम आया मिरा
रह गया बस मुंशी-ए-क़ुदरत जगह वाँ छोड़ कर
साया-ए-सर्व-ए-चमन तुझ बिन डराता है मुझे
साँप सा पानी में ऐ सर्व-ख़िरामाँ छोड़ कर
हो गया तिफ़्ली ही से दिल में तराज़ू तीर-ए-इश्क़
भागे हैं मकतब से हम औराक़-ए-मीज़ाँ छोड़ कर
अहल-ए-जौहर को वतन में रहने देता गर फ़लक
लाल क्यूँ इस रंग से आता बदख़्शाँ छोड़ कर
शौक़ है उस को भी तर्ज़-ए-नाला-ए-उश्शाक़ से
दम-ब-दम छेड़े है मुँह से दूद-ए-क़ुल्याँ छोड़ कर
दिल तो लगते ही लगे गा हूरयान-ए-अदन से
बाग़-ए-हस्ती से चला हूँ हाए परियाँ छोड़ कर
घर से भी वाक़िफ़ नहीं उस के कि जिस के वास्ते
बैठे हैं घर-बार हम सब ख़ाना-वीराँ छोड़ कर
वस्ल में गर होवे मुझ को रूयत-ए-माह-ए-रजब
रू-ए-जानाँ ही को देखूँ मैं तो क़ुरआँ छोड़ कर
इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर
ग़ज़ल
जब चला वो मुझ को बिस्मिल ख़ूँ में ग़लताँ छोड़ कर
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़