आँधियाँ ज़ोर दिखाएँ भी तो क्या होता है 
गुल खिलाने का हुनर बाद-ए-सबा जानती है
मंज़र भोपाली
इक मकाँ और बुलंदी पे बनाने न दिया 
हम को पर्वाज़ का मौक़ा ही हवा ने न दिया
मंज़र भोपाली
इधर तो दर्द का प्याला छलकने वाला है 
मगर वो कहते हैं ये दास्तान कुछ कम है
मंज़र भोपाली
हमारे दिल पे जो ज़ख़्मों का बाब लिक्खा है 
इसी में वक़्त का सारा हिसाब लिक्खा है
मंज़र भोपाली
दिन भी डूबा कि नहीं ये मुझे मालूम नहीं 
जिस जगह बुझ गए आँखों के दिए रात हुई
मंज़र भोपाली
बाप बोझ ढोता था क्या जहेज़ दे पाता 
इस लिए वो शहज़ादी आज तक कुँवारी है
मंज़र भोपाली
अब समझ लेते हैं मीठे लफ़्ज़ की कड़वाहटें 
हो गया है ज़िंदगी का तजरबा थोड़ा बहुत
मंज़र भोपाली
आप ही की है अदालत आप ही मुंसिफ़ भी हैं 
ये तो कहिए आप के ऐब-ओ-हुनर देखेगा कौन
मंज़र भोपाली
आँख भर आई किसी से जो मुलाक़ात हुई 
ख़ुश्क मौसम था मगर टूट के बरसात हुई
मंज़र भोपाली

