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कोई बचने का नहीं सब का पता जानती है | शाही शायरी
koi bachne ka nahin sab ka pata jaanti hai

ग़ज़ल

कोई बचने का नहीं सब का पता जानती है

मंज़र भोपाली

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कोई बचने का नहीं सब का पता जानती है
किस तरफ़ आग लगाना है हवा जानती है

उजले कपड़ों में रहो या कि नक़ाबें डालो
तुम को हर रंग में ये ख़ल्क़-ए-ख़ुदा जानती है

रोक पाएगी न ज़ंजीर न दीवार कोई
अपनी मंज़िल का पता आह-ए-रसा जानती है

टूट जाऊँगा बिखर जाऊँगा हारूँगा नहीं
मेरी हिम्मत को ज़माने की हवा जानती है

आप सच बोल रहे हैं तो पशेमाँ क्यूँ हैं
ये वो दुनिया है जो अच्छों को बुरा जानती है

आँधियाँ ज़ोर दिखाएँ भी तो क्या होता है
गुल खिलाने का हुनर बाद-ए-सबा जानती है

आँख वाले नहीं पहचानते उस को 'मंज़र'
जितने नज़दीक से फूलों की अदा जानती है