एक आसेब तआक़ुब में लगा रहता है
मैं जो रुकता हूँ तो फिर उस की सदा चलती है
लियाक़त जाफ़री
हालाँकि पहले साए से रहती थी कश्मकश
अब अपने बोझ से ही दबा जा रहा हूँ मैं
लियाक़त जाफ़री
हम भी जी भर के तुझे कोसते फिरते लेकिन
हम तिरा लहजा-ए-बे-बाक कहाँ से लाएँ
लियाक़त जाफ़री
लफ़्ज़ को इल्हाम मअ'नी को शरर समझा था मैं
दर-हक़ीक़त ऐब था जिस को हुनर समझा था मैं
लियाक़त जाफ़री
मैं आख़िरी था जिसे सरफ़राज़ होना था
मिरे हुनर में भी कोताहियाँ निकल आईं
लियाक़त जाफ़री
मैं बहुत जल्द लौट आऊँगा
तुम मिरा इंतिज़ार मत करना
लियाक़त जाफ़री
मैं कुछ दिन से अचानक फिर अकेला पड़ गया हूँ
नए मौसम में इक वहशत पुरानी काटती है
लियाक़त जाफ़री
मिरे क़बीले में ता'लीम का रिवाज न था
मिरे बुज़ुर्ग मगर तख़्तियाँ बनाते थे
लियाक़त जाफ़री
फिर मुरत्तब किए गए जज़्बात
इश्क़ को इब्तिदा में रक्खा गया
लियाक़त जाफ़री