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पड़े पड़े नई ज़र-ख़ेज़ियाँ निकल आईं | शाही शायरी
paDe paDe nai zar-KHeziyan nikal aain

ग़ज़ल

पड़े पड़े नई ज़र-ख़ेज़ियाँ निकल आईं

लियाक़त जाफ़री

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पड़े पड़े नई ज़र-ख़ेज़ियाँ निकल आईं
कटे दरख़्त में फिर टहनियाँ निकल आईं

उस आइने में था सरसब्ज़ बाग़ का मंज़र
छुआ जो मैं ने तो दो तितलियाँ निकल आईं

मैं तोड़ डाला गया तो इमारत-ए-जाँ में
कहाँ कहाँ से मिरी चाबियाँ निकल आईं

मैं आसमान पे पहुँचा तो लड़खड़ाने लगा
बुलंदियों में अजब पस्तियाँ निकल आईं

ठहर गए तो मयस्सर हुई न जा-ए-अमाँ
जो चल पड़े तो कई बस्तियाँ निकल आईं

वही नसीब कि मैं शहरयार जिस से बना
उसी नसीब में तंग-दस्तियाँ निकल आईं

मिरे इलाज को अल्लाह इस्तक़ामत दे
मिरे मरीज़ की फिर पस्लियाँ निकल आईं

मैं आसमान से उतरा ज़मीन की जानिब
ज़मीं से मेरी तरफ़ सीढ़ियाँ निकल आईं

वही सुराख़ जहाँ छिपकिली का डेरा था
उसी सूराख़ से फिर च्यूंटियाँ निकल आईं

अभी अभी तो सँभाला गया था गर्द-ओ-ग़ुबार
हिसार-ए-दश्त में फिर आँधियाँ निकल आईं

सँभाल रखा था अम्मी ने जिस को मौत तलक
उसी कबाड़ से कुछ तख़्तियाँ निकल आईं

मैं आख़िरी था जिसे सरफ़राज़ होना था
मिरे हुनर में भी कोताहियाँ निकल आईं