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ये जो रह रह के सर-ए-दश्त हवा चलती है | शाही शायरी
ye jo rah rah ke sar-e-dasht hawa chalti hai

ग़ज़ल

ये जो रह रह के सर-ए-दश्त हवा चलती है

लियाक़त जाफ़री

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ये जो रह रह के सर-ए-दश्त हवा चलती है
कितनी अच्छी है मगर कितना बुरा चलती है

एक आसेब तआक़ुब में लगा रहता है
मैं जो रुकता हूँ तो फिर उस की सदा चलती है

हाए वो साँस कि रुकती है तो क्या रुकती है
हाए वो आँख कि चलती है तो क्या चलती है

पेश-ख़ेमा है किसी और नई वहशत का
ये जो इतरा के अभी बाद-ए-सबा चलती है

तीर चलते हैं लगातार सवाद-ए-जाँ में
और तलवार कोई एक जुदा चलती है

बीच दरिया के अजब जश्न बपा है यारो
साथ कश्ती के कोई मौज-ए-बला चलती है

आज कुछ और ही मंज़र है मिरे चारों तरफ़
ग़ैर-महसूस तरीक़े से हवा चलती है

मैं ब-ज़ाहिर तो हूँ आसूदा प मेरे अंदर
धीमे धीमे से कहीं आह-ओ-बुका चलती है

यूँ तो बेबाक बना फिरता है वो यारों में
उस की आँखों में अजब शर्म-ओ-हया चलती है

मेरे मौला जो रहे सिर्फ़ कहा तेरा रहे
मेरे होंटों पे यही एक दुआ चलती है