हम ऐसे अहल-ए-नज़र को सुबूत-ए-हक़ के लिए
अगर रसूल न होते तो सुब्ह काफ़ी थी
जोश मलीहाबादी
हम गए थे उस से करने शिकवा-ए-दर्द-फ़िराक़
मुस्कुरा कर उस ने देखा सब गिला जाता रहा
जोश मलीहाबादी
हर एक काँटे पे सुर्ख़ किरनें हर इक कली में चराग़ रौशन
ख़याल में मुस्कुराने वाले तिरा तबस्सुम कहाँ नहीं है
जोश मलीहाबादी
इधर तेरी मशिय्यत है उधर हिकमत रसूलों की
इलाही आदमी के बाब में क्या हुक्म होता है
जोश मलीहाबादी
इक न इक ज़ुल्मत से जब वाबस्ता रहना है तो 'जोश'
ज़िंदगी पर साया-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ क्यूँ न हो
जोश मलीहाबादी
इंसान के लहू को पियो इज़्न-ए-आम है
अंगूर की शराब का पीना हराम है
जोश मलीहाबादी
इस दिल में तिरे हुस्न की वो जल्वागरी है
जो देखे है कहता है कि शीशे में परी है
जोश मलीहाबादी