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न छेड़ शाइर रबाब-ए-रंगीं ये बज़्म अभी नुक्ता-दाँ नहीं है | शाही शायरी
na chheD shair rabab-e-rangin ye bazm abhi nukta-dan nahin hai

ग़ज़ल

न छेड़ शाइर रबाब-ए-रंगीं ये बज़्म अभी नुक्ता-दाँ नहीं है

जोश मलीहाबादी

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न छेड़ शाइर रबाब-ए-रंगीं ये बज़्म अभी नुक्ता-दाँ नहीं है
तिरी नवा-संजियों के शायाँ फ़ज़ा-ए-हिन्दोस्ताँ नहीं है

तिरी समाअत निगार-ए-फ़ितरत के लहन की राज़-दाँ नहीं है
वगरना ज़र्रा है कौन ऐसा कि जिस के मुँह में ज़बाँ नहीं है

अगरचे पामाल हैं ये बहरें मगर सुख़न है बुलंद हमदम
न दिल में लाना गुमान-ए-पस्ती मिरी ज़मीं आसमाँ नहीं है

ज़मीर-ए-फ़ितरत में पुर-फ़िशाँ है चमन की तरतीब-ए-नौ का अरमाँ
ख़िज़ाँ जिसे तो समझ रहा है वो दर-हक़ीक़त ख़िज़ाँ नहीं है

हरीम-ए-अनवार-ए-सरमदी है हर एक ज़र्रा ब-रब्ब-ए-काबा
मिरा ये ऐनी मुशाहेदा है फ़रेब-ए-वहम-ओ-गुमाँ नहीं है

हर एक काँटे पे सुर्ख़ किरनें हर इक कली में चराग़ रौशन
ख़याल में मुस्कुराने वाले तिरा तबस्सुम कहाँ नहीं है

फ़लक से हंगाम-ए-शेर-गोई सदाएँ पैहम ये आ रही हैं
कि आज ऐ 'जोश' नुक्ता-परवर तिरा सा जादू बयाँ नहीं है