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फ़िक्र ही ठहरी तो दिल को फ़िक्र-ए-ख़ूबाँ क्यूँ न हो | शाही शायरी
fikr hi Thahri to dil ko fikr-e-KHuban kyun na ho

ग़ज़ल

फ़िक्र ही ठहरी तो दिल को फ़िक्र-ए-ख़ूबाँ क्यूँ न हो

जोश मलीहाबादी

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फ़िक्र ही ठहरी तो दिल को फ़िक्र-ए-ख़ूबाँ क्यूँ न हो
ख़ाक होना है तो ख़ाक-ए-कू-ए-जानाँ क्यूँ न हो

दहर में ऐ ख़्वाजा ठहरी जब असीरी ना-गुज़ीर
दिल असीर-ए-हल्क़ा-ए-गेसू-ए-पेचाँ क्यूँ न हो

ज़ीस्त है जब मुस्तक़िल आवारागर्दी ही का नाम
अक़्ल वालो फिर तवाफ़-ए-कू-ए-जानाँ क्यूँ न हो

जब नहीं मस्तूरियों में भी गुनाहों से नजात
दिल खुले बंदों ग़रीक़-ए-बहर-ए-इसयाँ क्यूँ न हो

इक न इक हंगामे पर मौक़ूफ़ है जब ज़िंदगी
मय-कदे में रिंद रक़्साँ ओ ग़ज़ल-ख़्वाँ क्यूँ न हो

जब ख़ुश ओ ना-ख़ुश किसी के हाथ में देना है हाथ
हम-नशीं फिर बैअत-ए-जाम-ए-ज़र-अफ़्शाँ क्यूँ न हो

जब बशर की दस्तरस से दूर है हब्लुल-मतीं
दश्त-ए-वहशत में फिर इक काफ़िर का दामाँ क्यूँ न हो

एक है जब शोर-ए-जह्ल ओ बाँग-ए-हिकमत का मआल
दिल हलाक-ए-ज़ौक़-ए-गुलबाँग-ए-परेशाँ क्यूँ न हो

इक न इक रिफ़अत के आगे सज्दा लाज़िम है तो फिर
आदमी महव-ए-सुजूद-ए-सर्व-ए-ख़ूबाँ क्यूँ न हो

इक न इक फंदे ही में फँसना है जब इंसान को
दोश पर दाम-ए-सियाह-ए-सुम्बुलिस्ताँ क्यूँ न हो

जब फ़रेबों में ही रहना है तो ऐ अहल-ए-ख़िरद
लज़्ज़त-ए-पैमान बार-ए-सुस्त-पैमाँ क्यूँ न हो

याँ जब आवेज़िश ही ठहरी है तो ज़र्रे छोड़ कर
आदमी ख़ुर्शीद से दस्त-ओ-गरेबाँ क्यूँ न हो

इक न इक ज़ुल्मत से जब वाबस्ता रहना है तो 'जोश'
ज़िंदगी पर साया-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ क्यूँ न हो