बे-महाबा हो अगर हुस्न तो वो बात कहाँ
छुप के जिस शान से होता है नुमायाँ कोई
असग़र गोंडवी
आलाम-ए-रोज़गार को आसाँ बना दिया
जो ग़म हुआ उसे ग़म-ए-जानाँ बना दिया
असग़र गोंडवी
'असग़र' से मिले लेकिन 'असग़र' को नहीं देखा
अशआ'र में सुनते हैं कुछ कुछ वो नुमायाँ है
असग़र गोंडवी
'असग़र' हरीम-ए-इश्क़ में हस्ती ही जुर्म है
रखना कभी न पाँव यहाँ सर लिए हुए
असग़र गोंडवी
'असग़र' ग़ज़ल में चाहिए वो मौज-ए-ज़िंदगी
जो हुस्न है बुतों में जो मस्ती शराब में
असग़र गोंडवी
अल्लाह-रे चश्म-ए-यार की मोजिज़-बयानियाँ
हर इक को है गुमाँ कि मुख़ातब हमीं रहे
असग़र गोंडवी
अक्स किस चीज़ का आईना-ए-हैरत में नहीं
तेरी सूरत में है क्या जो मेरी सूरत में नहीं
असग़र गोंडवी
ऐ शैख़ वो बसीत हक़ीक़त है कुफ़्र की
कुछ क़ैद-ए-रस्म ने जिसे ईमाँ बना दिया
असग़र गोंडवी
आरिज़-ए-नाज़ुक पे उन के रंग सा कुछ आ गया
इन गुलों को छेड़ कर हम ने गुलिस्ताँ कर दिया
असग़र गोंडवी