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आलाम-ए-रोज़गार को आसाँ बना दिया | शाही शायरी
aalam-e-rozgar ko aasan bana diya

ग़ज़ल

आलाम-ए-रोज़गार को आसाँ बना दिया

असग़र गोंडवी

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आलाम-ए-रोज़गार को आसाँ बना दिया
जो ग़म हुआ उसे ग़म-ए-जानाँ बना दिया

मैं कामयाब-ए-दीद भी महरूम-ए-दीद भी
जल्वों के इज़्दिहाम ने हैराँ बना दिया

यूँ मुस्कुराए जान सी कलियों में पड़ गई
यूँ लब-कुशा हुए कि गुलिस्ताँ बना दिया

कुछ शोरिशों की नज़्र हुआ ख़ून-ए-आशिक़ाँ
कुछ जम के रह गया उसे हिरमाँ बना दिया

ऐ शैख़ वो बसीत हक़ीक़त है कुफ़्र की
कुछ क़ैद-ए-रस्म ने जिसे ईमाँ बना दिया

कुछ आग दी हवस में तो तामीर-ए-इश्क़ की
जब ख़ाक कर दिया उसे इरफ़ाँ बना दिया

क्या क्या क़ुयूद दहर में हैं अहल-ए-होश के
ऐसी फ़ज़ा-ए-साफ़ को ज़िंदाँ बना दिया

इक बर्क़ थी ज़मीर में फ़ितरत के मौजज़न
आज उस को हुस्न ओ इश्क़ का सामाँ बना दिया

मजबूरी-ए-हयात में राज़-ए-हयात है
ज़िंदाँ को मैं ने रौज़न-ए-ज़िंदाँ बना दिया

वो शोरिशें निज़ाम-ए-जहाँ जिन के दम से है
जब मुख़्तसर किया उन्हें इंसाँ बना दिया

हम उस निगाह-ए-नाज़ को समझे थे नेश्तर
तुम ने तो मुस्कुरा के रग-ए-जाँ बना दिया

बुलबुल ब-आह-ओ-नाला व गुल मस्त-ए-रंग-ओ-बू
मुझ को शहीद-ए-रस्म-ए-गुलिस्ताँ बना दिया

कहते हैं इक फ़रेब-ए-मुसलसल है ज़िंदगी
उस को भी वक़्फ़-ए-हसरत-ओ-हिरमाँ बना दिया

आलम से बे-ख़बर भी हूँ आलम में भी हूँ मैं
साक़ी ने इस मक़ाम को आसाँ बना दिया

उस हुस्न-ए-कारोबार को मस्तों से पूछिए
जिस को फ़रेब-ए-होश ने इस्याँ बना दिया