आलाम-ए-रोज़गार को आसाँ बना दिया
जो ग़म हुआ उसे ग़म-ए-जानाँ बना दिया
मैं कामयाब-ए-दीद भी महरूम-ए-दीद भी
जल्वों के इज़्दिहाम ने हैराँ बना दिया
यूँ मुस्कुराए जान सी कलियों में पड़ गई
यूँ लब-कुशा हुए कि गुलिस्ताँ बना दिया
कुछ शोरिशों की नज़्र हुआ ख़ून-ए-आशिक़ाँ
कुछ जम के रह गया उसे हिरमाँ बना दिया
ऐ शैख़ वो बसीत हक़ीक़त है कुफ़्र की
कुछ क़ैद-ए-रस्म ने जिसे ईमाँ बना दिया
कुछ आग दी हवस में तो तामीर-ए-इश्क़ की
जब ख़ाक कर दिया उसे इरफ़ाँ बना दिया
क्या क्या क़ुयूद दहर में हैं अहल-ए-होश के
ऐसी फ़ज़ा-ए-साफ़ को ज़िंदाँ बना दिया
इक बर्क़ थी ज़मीर में फ़ितरत के मौजज़न
आज उस को हुस्न ओ इश्क़ का सामाँ बना दिया
मजबूरी-ए-हयात में राज़-ए-हयात है
ज़िंदाँ को मैं ने रौज़न-ए-ज़िंदाँ बना दिया
वो शोरिशें निज़ाम-ए-जहाँ जिन के दम से है
जब मुख़्तसर किया उन्हें इंसाँ बना दिया
हम उस निगाह-ए-नाज़ को समझे थे नेश्तर
तुम ने तो मुस्कुरा के रग-ए-जाँ बना दिया
बुलबुल ब-आह-ओ-नाला व गुल मस्त-ए-रंग-ओ-बू
मुझ को शहीद-ए-रस्म-ए-गुलिस्ताँ बना दिया
कहते हैं इक फ़रेब-ए-मुसलसल है ज़िंदगी
उस को भी वक़्फ़-ए-हसरत-ओ-हिरमाँ बना दिया
आलम से बे-ख़बर भी हूँ आलम में भी हूँ मैं
साक़ी ने इस मक़ाम को आसाँ बना दिया
उस हुस्न-ए-कारोबार को मस्तों से पूछिए
जिस को फ़रेब-ए-होश ने इस्याँ बना दिया
ग़ज़ल
आलाम-ए-रोज़गार को आसाँ बना दिया
असग़र गोंडवी