मुझ को मालूम है महबूब-परस्ती का अज़ाब
देर से चाँद निकलना भी ग़लत लगता है
अहमद कमाल परवाज़ी
आग तो चारों ही जानिब थी पर अच्छा ये है
होश-मंदी से किसी चीज़ को जलने न दिया
अहमद कमाल परवाज़ी
मैं क़सीदा तिरा लिक्खूँ तो कोई बात नहीं
पर कोई दूसरा दोहराए तो शक करता हूँ
अहमद कमाल परवाज़ी
मैं ने इस शहर में वो ठोकरें खाई हैं कि अब
आँख भी मूँद के गुज़रूँ तो गुज़र जाता हूँ
अहमद कमाल परवाज़ी
मैं इस लिए भी तिरे फ़न की क़द्र करता हूँ
तू झूट बोल के आँसू निकाल लेता है
अहमद कमाल परवाज़ी
ख़ुदाया यूँ भी हो कि उस के हाथों क़त्ल हो जाऊँ
वही इक ऐसा क़ातिल है जो पेशा-वर नहीं लगता
अहमद कमाल परवाज़ी
जो खो गया है कहीं ज़िंदगी के मेले में
कभी कभी उसे आँसू निकल के देखते हैं
अहमद कमाल परवाज़ी
इस क़दर आप के बदले हुए तेवर हैं कि मैं
अपनी ही चीज़ उठाते हुए डर जाता हूँ
अहमद कमाल परवाज़ी
एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
ऐसे मौक़े पे निशाना भी ग़लत लगता है
अहमद कमाल परवाज़ी