फूल पर ओस का क़तरा भी ग़लत लगता है
जाने क्यूँ आप को अच्छा भी ग़लत लगता है
मुझ को मालूम है महबूब-परस्ती का अज़ाब
देर से चाँद निकलना भी ग़लत लगता है
आप की हर्फ़-अदाई का ये आलम है कि अब
पेड़ पर शहद का छत्ता भी ग़लत लगता है
एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
ऐसे मौक़े पे निशाना भी ग़लत लगता है
शाख़-ए-गुल काट के त्रिशूल बना देते हो
क्या गुलाबों का महकना भी ग़लत लगता है
ग़ज़ल
फूल पर ओस का क़तरा भी ग़लत लगता है
अहमद कमाल परवाज़ी